अस्मत


अस्मत
लुटती रोज यहाँ !
बस मेँ
बाजार मेँ
मण्डी मेँ
सब्जी से सस्ती ।
तुम भी तो
खामोश हो
बेपरवाह
जैसे यह
रोज का नियम
है तुम्हारे लिए ।
मैँ तुम्हारी
बहन नहीँ
मगर वह भी
जाती है बस से,
रोज कालेज
कभी बाजार
सब्जी मण्डी
उसे भी तो
कुहनी मारता है
सभ्य समाज ?
घूरती नजरेँ
करती हैँ पीछा
हर जगह
तुम्हारी जवान बेटी
बेचारी बहन
और सुंदर बीवी !
कोई नहीँ बचता
कब तक रहोगे
तुम गूंगे, बहरे
साफ साफ देखते अंधे ?
टटोलती नजरेँ
लुटती
अस्मत ।

Written by. . . . गंभीर सिँह