वसंत (poem) सुमति दुबे



कोलाहलपूरित अखिल  विश्व,आलोड़ित मन,उन्माद भरे,
मदमत्त किए लघु मानव को,लघु उर पर चपल प्रहार किए।

द्रुत से द्रुततर द्रुततम् दौड़े,पा गया नाव जग-जीवन की,
विश्राम नहीं लेता क्षणभर,ज्यों भूला सीमा जग-तन की।

लो !उलट-पुलट डाला मधुवन,पंखुड़ियाँ भी उड़ती-फिरतीं,
ले गया चुरा मकरंद मधुर,
बिखराता फिरता नभ-धरती।

चौंकीं कलियाँ मुख खोल-खोल,झाँका सबने कोना-कोना,
असमय में कौन डोलता है,मन पर फेरे जादू-टोना।

छूटे भौंरे दिग्भ्रान्त भ्रमित,फिर-फिर टकराएँ फूलों से,
मधु से अलसाए पंखों से,मकरंद झरे मृदु हूलों से।

बूढ़ी शाखें ओढ़ें चूनर,कलियों की बेंदी पहनेंगी,
शशि झाँकेगा सर-सर उड़ता,चंदा में मुखड़ा देखेंगी।

मन छेड़ रहा बीती बातें,उन्मीलित युगल नयन घूमें,
बक-ध्यान लगाए बैठा मन,कुछ सुधियाँ झुक-झुककर बीने।

तन ओत-प्रोत सुधि-पूरित हो,इंद्रिय पर इंद्रजाल फिरता,
दो चपल मीन -से ये नैना,जागृति-सुषुप्ति का क्रम तिरता।

सुमति